अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।अर्थ:
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥४४॥
ओह ! कितने आश्चर्य की बात है कि हम सब जघन्य पापकर्म करने के लिए उद्यत हो रहे हैं। राज्यसुख भोगने की इच्छा से प्रेरित होकर हम अपने ही सम्बन्धियों को मारने पर तुले हैं।तात्पर्य:
स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य अपने सगे भाई, बाप या माँ के वध जैसे पापकर्मों में प्रवृत्त हो सकता है। विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं। किन्तु भगवान् का साधु भक्त होने के कारण अर्जुन सदाचार के प्रति जागरुक है। अतः वह ऐसे कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है।