भगवद गीता अध्याय 2 – सांख्ययोग का विस्तृत वर्णन। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा, कर्तव्य, और ज्ञानयोग का उपदेश देते हैं। जानें आत्मा की अमरता, निष्काम कर्म, और धर्म के गूढ़ रहस्य। पढ़ें संपूर्ण व्याख्या और महत्वपूर्ण श्लोकों का अर्थ।
सञ्जय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः ॥१॥
अर्थ
संजय ने कहा- करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे।
तात्पर्य :
भौतिक पदार्थों के प्रति करुणा, शोक तथा अश्रु- ये सब असली आत्मा को न जानने के लक्षण हैं। शाश्वत आत्मा के प्रति करुणा ही आत्म-साक्षात्कार है।
इस श्लोक में "मधुसूदन" शब्द महत्त्वपूर्ण है। कृष्ण ने मधु नामक असुर का वध किया था और अब अर्जुन चाह रहा है कि कृष्ण उस अज्ञान रूपी असुर का वध करें जिसने उसे कर्तव्य से विमुख कर रखा है। यह कोई नहीं जानता कि करुणा का प्रयोग कहाँ होना चाहिए। डूबते हुए मनुष्य के वस्त्रों के लिए करुणा मूर्खता होगी। अज्ञान-सागर में गिरे हुए मनुष्य को केवल उसके बाहरी पहनावे अर्थात् स्थूल शरीर की रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता। जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के लिए, शोक करता है, वह शूद्र कहलाता है अर्थात् वह वृथा ही शोक करता है। अर्जुन तो क्षत्रिय था, अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न थी। किन्तु भगवान् कृष्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को विनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होंने भगवद्गीता का उपदेश दिया। यह अध्याय हमें भौतिक शरीर तथा आत्मा के वैश्लेषिक अध्ययन द्वारा आत्म-साक्षात्कार का उपदेश देता है, जिसकी व्याख्या परम अधिकारी भगवान् कृष्ण द्वारा की गई है। यह साक्षात्कार तभी सम्भव है, जब मनुष्य निष्काम भाव से कर्म करे और आत्म बोध को प्राप्त हो ।